कविता - सृष्टि और इंसान
शुरुआत हुई सृष्टि की
वह इंसान बन गया,
असभ्य था वह तब भी
खुद को आज भी न सभ्य कर सका,
कपड़े नहीं थे तन पर
लेकिन भावों को समझने लगे....
आज हो गया वह आधुनिक
और भाव सबके मरने लगे,
दुनिया की इस भीड़ में
जाने क्या वह तलाशता
कुछ हाथ नहीं आया
जो था वह भी गवाया,
सफलता की तलाश में
वजूद अपना खो दिया....
अंत में ठगा सा और थका सा रह गया,
था तब भी अकेला
और
आज भी अकेला रह गया,
वह इंसान तो बना पर
इंसानियत न निभा सका,
मशीनीकरण के युग में
वह मशीन बन गया,
भाव रहे न उसमे
बस शून्य रह गया
बस शून्यरह गया....
शुरुआत हुई सृष्टि की
वह इंसान बन गया,
असभ्य था वह तब भी
खुद को आज भी न सभ्य कर सका,
कपड़े नहीं थे तन पर
लेकिन भावों को समझने लगे....
आज हो गया वह आधुनिक
और भाव सबके मरने लगे,
दुनिया की इस भीड़ में
जाने क्या वह तलाशता
कुछ हाथ नहीं आया
जो था वह भी गवाया,
सफलता की तलाश में
वजूद अपना खो दिया....
अंत में ठगा सा और थका सा रह गया,
था तब भी अकेला
और
आज भी अकेला रह गया,
वह इंसान तो बना पर
इंसानियत न निभा सका,
मशीनीकरण के युग में
वह मशीन बन गया,
भाव रहे न उसमे
बस शून्य रह गया
बस शून्यरह गया....
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