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कविता - खिड़की by Pawan Singh Sikarwar

कविता - खिड़की
एक दिन मेने, अपनी खिड़की खोली
ठंडी हवाओं का शोर था....2
मेरी सामने वाली खिड़की में भी चाँद सा एक चकोर था।
में मुस्करा रहा था,
वो शरमा रही थी ..2
में अपने आप को सुलझा रहा था,
 वो अपने चेहरे पर आ रही झुलफो को सुलझा रही थी
मेरा दिल भी अब इश्क़- ए- दिले चोर था... 2
मेरी सामने वाली खिड़की में भी चांद से एक चकोर था.....2
में उसे देखता रहा
और वो नजरें फेरती रही...2
इश्क़ का महजब आंखों ही आंखों में तोलती रही....1
वो मेरी ईद ओर में उसका दीवाली वाला माहौल था.....2
मेरी सामने वाली खिड़की में चाँद सा एक चकोर था
आखिर में उसने हां कर दी,
जिंदगी की एक नई शुरुआत कर दी
अकेली जिंदगी में बहार कर दी, मोहब्बत से मेरी मुलाकात कर दी।
वो मेरी दिल्ली और में उसका इंदौर था
मेरी सामने वाली खिड़की में चाँद सा एक चकोर था।
By Author Pawan Singh

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